सिख समाज के 10वें गुरु गोविंद सिंह की 350वीं जयंति पूरी दुनिया में मनाई जा रही है। उनके बाद सिख समाज के लोग उनके द्वारा रचित ग्रंथ साहब को ही गुरु मानते हैं। गुरुगोविंद सिंह ने बुरहानपुर में रहकर गुरु ग्रंथ साहब की रचना की थी। यहां के बड़ी संगत गुरुद्वारे में आज भी गुरु ग्रंथ साहब की मूल प्रति सुरक्षित है।
गुरुगोविंद सिंह महज 9 साल की उम्र में गुरु पद पर आसीन हुए थे। सैनिक के वेश में रहने वाले गुरु गोविंद सिंह आध्यात्मिक संत, वीर योद्धा और समर्पित लेखक थे। मुगलों के अन्याय और आतंक के खिलाफ संघर्ष करते हुए उनके चारों पुत्रों ने खुद का बलिदान कर दिया था। उनके साहस और युद्ध कला का लोहा मुगल सल्तनत भी मानती थी।
दसवें गुरु ने कई ग्रंथों की रचना की। इनमें से गुरुग्रंथ साहब को सिख अपना गुरु मानते हैं। गुरुग्रंथ साहब को उन्होंने बुरहानपुर में रहकर पूरा किया था। सोने की बार्डर से जड़ी ग्रंथ साहब की इस प्रति पर उन्होंने अपने स्वर्णिम हस्ताक्षर किए थे। वे बुरहानपुर में 6 माह 9 दिन तक रुके थे। यहां से वे नांदेड़ के लिए रवाना हुए थे।
बुरहानपुर में जहां गुरु गोविंद सिंह रुके थे। उसी के पास उनके पोते हठेसिंह की समाधि है। इसी के पास उनके अनुयायियों ने गुरुद्वारे का निर्माण किया है। गुरुद्वारा बड़ी संगत में अभी भी गुरुग्रंथ साहब की मूल प्रति रखी है। यहां उनकी तलवार भी है।
गुरु गोविंद सिंह के व्यक्तित्व में ऐसी कशिश थी कि उनसे मिलने के बाद शत्रु भी उनके मित्र बन जाते थे।
मुग़ल बादशाह औरंगजेब उन्हें अपना शत्रु मानता था, लेकिन उसका शहजादा मुअज्जम (बहादुरशाह) उन्हें अपना मार्गदर्शक मानता था। उसे दिल्ली की गद्दी गुरु गोविंद सिंह की वजह से मिली। जांजू की लड़ाई में गुरु गोविन्द सिंह ने उसका साथ दिया। उनकी वजह से ही मुअज्जम शाहंशाहे हिन्द बना। मुअज्जम ने उनसे दक्षिण यात्रा पर उसके साथ चलने की विनती की थी। उसका आग्रह मानकर गुरु गोविंद सिंह ताप्ती पार करके बुरहानपुर पहुंचे थे। अपने अनुयायियों के आग्रह पर वे यहां रुके थे। बुरहानपुर में अभी भी उनकी कुटिया है।